लोक आस्था का महापर्व : छठ
वैसे तो छठ पूजा मुख्यतः रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है परन्तु विगत कुछ वर्षों में इसके सरल स्वरूप, मनोहर विधि-विधान एवं इसके सुन्दर रीतियों ने इसे इतना लोकप्रिय कर दिया है की आज सभी को इसके विषय में जानने एवं इसमें सम्मिलित होने की इच्छा होती है. षष्ठी को मनाया जाने वाला छठ पूजा सूर्य उपासना का अनुपम लोकपर्व है।
छठ कदाचित षष्ठ/षष्ठी शब्द से विकृति के कारन बना है. पुराणों आदि जहाँ भी इस पर्व की कथा या इसका भाव दृश्य होता है वो षष्ठी नाम से ही होता है.
लोग अलग-अलग कारणों से छठ पूजा मनाते हैं या व्रत रखते हैं, लेकिन मुख्य कारण सूर्य देव की पूजा करना और उनका आशीर्वाद मांगना है। सूर्य देव व् छठी मैया से स्वास्थ, सन्तान, धन-धान्य की प्रार्थना की जाती है.
छठ पूजा के लिए बिहार एवं उत्तर प्रदेश के लोग में विशेष आस्था व् आदर है. ये लगाव कई बार इससे भी दृश्य होता है की छठ पूजा पर अपने शहर अपने गाँव जाने वालों की संख्या लाखों में हमें दिखाई देती है.
छठ विशेष रूप से वर्ष में दो बार मनाया जाता है. इसमें मुख्य कार्तिक मास शुक्ल षष्ठी को मनाया जाने वाला है व् अन्य चैत्र शुक्ल षष्ठी को.
नहाय खाय
चार दिनों तक चलने इस महापर्व की शुरुआत 'नहाय खाय' से होती है.

जैसा की नाम से स्पस्ट होता है नहाय खाय के दिन प्रातः स्नान कर कद्दू की सब्जी बनाए का विधान है. आने वाले ३६ घंटों के उपवास के पूर्व दिन यह सात्विक भोजन होता है.
खरना
दूसरे दिन को खरना या लोहंडा कहा जाता है. इस दिन गुड़ की खीर, दूध की खीर, रोटी आदि बनाई जाती है व् ऋतुफल के साथ उसका भोग छठी मैया को लगाया जाता है.

संझिया घाट
इस क्रम में तृतीय दिन षष्ठी होती है जिस दिन को आमतौर पर संझिया घाट के नाम से भी जाना जाता है. इस दिन अस्ताचलगामी (सूर्यास्त) सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है.
कई स्थानों जैसे उत्तर बिहार इत्यादि में इस शाम कोसी भरी जाती है. कोसी सामान्यतः मनोकामना पूर्ण होने पर भरी जाती है। कोसी भरते समय थोड़ा बड़े स्तर पर छठ पूजा की जाती है।

कोसी भरना
स्थान और संस्कृति के आधार पर बदलते इस महापर्व में कोसी सामान्यतः एक मिट्टी के घड़े को भरने के विभिन्न तरीके हैं, जिसपर एक दीपक भी होता है।
छ्ठ मे संध्या अर्ध्य देने के पश्चात कोसी भरने की प्रक्रिया कहीं कहीं देखी जाती है जो विशेष कामनाओ की पूर्ति हेतु की जाती है। संध्या अर्ध्य के पश्चात घर लौट कर या नदी के तट पर रह कर ही कोसी भरी जाती है। विशेषकर उत्तर बिहार में कोसी दो बार भरी जाती है. एक घाट से लौट कर व् दूसरी बार अगली सुबह घाट पर.



इसमें व्रती ईख को (आम तौर पर १२, २४ या ४८ को आपस मे जोड़कर) खड़ा करते है। कहीं 2 (जोड़ा) या 1 प्रण के अनुसार कोसी भरी जाती है फिर स्थान विशेष को अयपन (चावल और हल्दी से बना घोल) से विशेष चिन्ह अंकित कर दीप जलाती है। चननी (गमछा या विशेष प्रकार का सूती कपड़ा) में छठ में प्रयोग आने वाले फलों तथा अन्य सामान को बांधते है और इसे ईख मे बांध कर ईख को खडा करने मे प्रयोग करते है।
इस कोसी को मिट्टी के हाथी (जिस पर दिये भी बने होते है) के ऊपर रखा जाता है और हाथी के आगे गेहूँ का ढेर भी रखा जाता है तथा कोसी के साथ ही साथ वह सारे चीजें जो चननी मे होते है डाले जाते है और इसके चारो तरफ ढक्कनी (मिट्टी के बरतन) में फल आदि रख कर इस पर दीप जलाया जाता है। उसके बाद स्त्रियाँ अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति हेतु क्षेत्रीय गीतों का सामूहिक गान करती है जिससे सूर्यदेव को प्रसन्न किया जा सके। साथ ही साथ सुबह होने का इंतजार भी करती है। फिर अरूणोदय के सूर्य को अर्ध्य दे कर छठ समाप्त करती है।
छठ पर्व बांस निर्मित सूप, टोकरी, मिट्टी के बरतनों, गन्ने के रस, गुड़, चावल और गेहूं से निर्मित प्रसाद और सुमधुर लोकगीतों से युक्त होकर लोक जीवन की भरपूर मिठास का प्रसार करता है।
कथा :
स्कंद पुराण के केदार खंड के अध्याय १४ में छह कृतिकाओं से स्कंद (जिनका नाम इस प्रकरण से कार्तिकेय हुआ) का जन्म हुआ। लोकोक्ति है कि छठी मैया इन्हीं छह कृतिकाओं को कहा जाता है।

कृतिकाओं ने अपने शरीर से तेज को जब गङ्गा जी में प्रवाहित किया तो वह छह मुखों वाले बालक का रूप लेकर उत्पन्न हुए। छठ पूजा के साथ स्कन्द षष्ठी भी होती है।

लोक कथा व् अन्य प्रचलित रूप
छठ पर्व कैसे शुरू हुआ इसके पीछे कई ऐतिहासिक कहानियां प्रचलित हैं। पुराण में छठ पूजा के पीछे की कहानी राजा प्रियंवद को लेकर है। कहते हैं राजा प्रियंवद को कोई संतान नहीं थी तब महर्षि कश्यप ने पुत्र की प्राप्ति के लिए यज्ञ कराकर प्रियंवद की पत्नी मालिनी को आहुति के लिए बनाई गई खीर दी। इससे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई लेकिन वो पुत्र मरा हुआ पैदा हुआ। प्रियंवद पुत्र को लेकर श्मशान गए और पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे। उसी वक्त भगवान की मानस पुत्री देवसेना प्रकट हुईं और उन्होंने राजा से कहा कि क्योंकि वो सृष्टि की मूल प्रवृति के छठे अंश से उत्पन्न हुई हैं, इसी कारण वो षष्ठी कहलातीं हैं। उन्होंने राजा को उनकी पूजा करने और दूसरों को पूजा के लिए प्रेरित करने को कहा। राजा प्रियंवद ने पुत्र इच्छा के कारण देवी षष्ठी की व्रत किया और उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। कहते हैं ये पूजा कार्तिक शुक्ल षष्ठी को हुई थी और तभी से छठ पूजा होती है।
इस कथा के अलावा एक कथा राम-सीता जी से भी जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक जब राम-सीता १४ वर्ष के वनवास के बाद अयोध्या लौटे थे तो रावण वध के पाप से मुक्त होने के लिए उन्होंने ऋषि-मुनियों के आदेश पर राजसूर्य यज्ञ करने का फैसला लिया। पूजा के लिए उन्होंने मुग्दल ऋषि को आमंत्रित किया । मुग्दल ऋषि ने मां सीता पर गंगा जल छिड़क कर पवित्र किया और कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को सूर्यदेव की उपासना करने का आदेश दिया। जिसे सीता जी ने मुग्दल ऋषि के आश्रम में रहकर छह दिनों तक सूर्यदेव भगवान की पूजा की थी।
एक मान्यता के अनुसार छठ पर्व की शुरुआत महाभारत काल में हुई थी। इसकी शुरुआत सबसे पहले सूर्यपुत्र कर्ण ने सूर्य की पूजा करके की थी। कर्ण भगवान सूर्य के परम भक्त थे और वो रोज घंटों कमर तक पानी में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते थे। सूर्य की कृपा से ही वह महान योद्धा बने। आज भी छठ में अर्घ्य दान की यही परंपरा प्रचलित है।
छठ पर्व के बारे में एक कथा और भी है। इस कथा के मुताबिक जब पांडव अपना सारा राजपाठ जुए में हार गए तब दौपदी ने छठ व्रत रखा था। इस व्रत से उनकी मनोकामना पूरी हुई थी और पांडवों को अपना राजपाठ वापस मिल गया था। लोक परंपरा के मुताबिक सूर्य देव और छठी मईया का संबंध भाई-बहन का है। इसलिए छठ के मौके पर सूर्य की आराधना फलदायी मानी गई।
मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि छठी मैय्या प्रकृति की अधिष्ठात्री देवी हैं और इसके साथ ही भगवान सूर्य की बहन भी। छठी मैय्या को संतान सुख, संतान की दीर्घायु और सौभाग्य प्रदान करने वाली माता माना गया है।
नोट : लोककथाओं के लिए कोई विशेष स्रोत प्राप्त नहीं है परन्तु विभिन्न पौराणिक कथाओं में षष्ठी का विशेष महत्त्व दृश्य है. ऐसे में इस व्रत का वैदिक कालीन कहा जाना स्वभावतः गलत नहीं लगता.
इति.
Comments
Post a Comment